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प्रा॒त॒र्यावा॑णा र॒थ्ये॑व वी॒राऽजेव॑ य॒मा वर॒मा स॑चेथे। मेने॑इव त॒न्वा॒३॒॑ शुम्भ॑माने॒ दम्प॑तीव क्रतु॒विदा॒ जने॑षु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prātaryāvāṇā rathyeva vīrājeva yamā varam ā sacethe | mene iva tanvā śumbhamāne dampatīva kratuvidā janeṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा॒तः॒ऽयावा॑ना। र॒थ्या॑ऽइव। वी॒रा। अ॒जाऽइ॑व। य॒मा। वर॑म्। आ। स॒चे॒थे॒ इति॑। मेने॑इ॒वेति॒ मेने॑ऽइव। त॒न्वा॑। शुम्भ॑माने॒ इति॑। दम्प॑तीइ॒वेति॒ दम्प॑तीऽइव। क्र॒तु॒ऽविदा॑। जने॑षु॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:39» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो सूर्य और पृथिवी (जनेषु) मनुष्यों में (रथ्येव) रथ के हित दो घोड़ों के तुल्य (प्रातर्यावाणा) जो प्रातःकाल जाते उनके समान वा (अजेव) दो बकरों के समान (वीरा) वीरता कर्मयुक्त वा (यमा) उपराम अर्थात् उड़ते-उड़ते निवृत्त हुए (मेने इव) दो मैनाओं के समान वा (तन्वा) शरीर से (शुम्भमाने) शोभते हुए (दम्पतीव) स्त्री-पुरुष के समान (क्रतुविदा) जिनसे प्रज्ञा को प्राप्त होते हैं उनको जान के पढ़ाने और पढ़नेवाले (वरम्) उत्तम कर्म का (आ,सचेथे) सम्बन्ध करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे सुशिक्षित घोड़ेवाले एक यान में स्थिर होके बकरों के समान वीरता का प्रकाश कर पक्षियों वा स्त्री-पुरुषों के समान शोभा को प्राप्त होते और अच्छे कर्मों को उत्पन्न कराते हैं, वैसे सूर्य और भूमि सबका उपकार करनेवाले वर्त्तमान हैं, यह जानना चाहिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

यौ द्यावापृथिव्यौ जनेषु रथ्येव प्रातर्यावाणा अजेव वीरा यमा मेने इव तन्वा शुम्भमाने दम्पतीव क्रतुविदा वर्त्तेते तौ विदित्वाऽध्यापकाध्येतारौ वरमा सचेथे ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रातर्यावाणा) यौ प्रातर्यातस्तौ (रथ्येव) यथा रथाय हितावश्वौ (वीरा) विक्रान्तकर्माणौ (अजेव) यथाऽजौ (यमा) उपरतौ (वरम्) उत्तमम् (आ) (सचेथे) सम्बध्नीथः (मेने इव) यथा मेने पक्षिण्यौ (तन्वा) शरीरेण (शुम्भमाने) सुशोभते (दम्पतीव) यथा भार्य्यापती (क्रतुविदा) क्रतुं प्रज्ञां विन्दति याभ्याम् (जनेषु) मनुष्येषु ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सुशिक्षिताऽश्वे समाने याने स्थित्वाऽजवद्वीरतां प्रकाश्य पक्षिवद्दम्पतीव शोभेते सुकर्माणि च जनयतस्तथा सूर्य्यभूमी सर्वोपकारिके वर्त्तेते इति ज्ञेयम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्रशिक्षित अश्वाप्रमाणे यानात स्थिर होऊन, अजाप्रमाणे वीरता दर्शवून, पक्ष्याप्रमाणे व स्त्री-पुरुषाप्रमाणे शोभायमान होऊन जे चांगले कर्म करतात व करवितात तसे सूर्य व भूमी सर्वांवर उपकार करतात, हे जाणले पाहिजे. ॥ २ ॥